Saturday, April 20, 2024
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इसरो का मिशन 43 साल पहले फेल हुआ था और अब स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल की पहली उड़ान असफल

नई दिल्ली (क़ौमी आग़ाज़ डेस्क)
दुनिया में सबसे सस्ते सैटेलाइट लॉन्चिंग के लिए चर्चित इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन, यानी इसरो की कम समय में तैयार होने वाले SSLV रॉकेट की पहली लॉन्चिंग असफल हो गई है। इससे इसरो की SSLV के जरिए दो सैटेलाइट्स को लॉन्च करने की योजना परवान नहीं चढ़ पाई। ये पहली बार नहीं है जब इसरो को स्पेस मिशन में असफलता मिली हो। पहले भी ऐसे कई पल आ चुके हैं, जब सफलता के बेहद करीब पहुंचकर भी महज कुछ सेकेंड के फासले से कामयाबी इसरो के हाथ से छिटक गई। इसरो 7 अगस्त 2022 को अपने नए रॉकेट स्मॉल सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी SSLV की लॉन्चिंग से इतिहास रचने उतरा। सुबह 9 बजकर 18 मिनट पर इसरो ने 34 मीटर लंबे रॉकेट SSLV-D1 को श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर से पहली बार लॉन्च किया। SSLV-D1 के जरिए दो सैटेलाइट EOS-2 और स्टूडेंट्स मेड सैटेलाइट AzaadiSAT को स्पेस में लॉन्च किया गया। शुरुआती कुछ मिनटों तक सब कुछ ठीक था। सुबह 10 बजकर 4 मिनट: इसरो ने SSLV की पहली उड़ान पूरी होने की जानकारी दी। इसरो ने बताया कि सभी चरण उम्मीद के मुताबिक पूरे हुए, लेकिन टर्मिनल यानी आखिरी स्टेज में कुछ डेटा लॉस देखा गया था, जिसका आंकलन किया जा रहा है। दोपहर में 2 बजकर 48 मिनट: इसरो ने ट्वीट के जरिए बताया कि दोनों सैटेलाइट्स सेंसर फेल्योर की वजह से अपनी तय ऑर्बिट यानी कक्षा में पहुंचने में नाकाम रहे और इस्तेमाल के लायक नहीं रह गए। इसरो ने अपने बयान में कहा कि SSLV-D1 ने दोनों सैटेलाइट्स (EOS-2 और AzaadiSAT) को सर्कुलर ऑर्बिट यानी वृत्ताकार कक्षा के बजाय इलिप्टिकल ऑर्बिट यानी अंडाकार कक्षा में प्लेस कर दिया था। इसरो ने कहा,’SSLV-D1 ने सैटेलाइट्स को 356 किलोमीटर वृत्ताकार कक्षा के बजाय 356 किमी x 76 किमी दीर्घ वृत्ताकार या अण्डाकार कक्षा में स्थापित किया। सैटेलाइट्स अब इस्तेमाल के योग्य नहीं हैं।’सैटेलाइट्स लॉन्चिंग की इस विफलता की वजह भी इसरो ने साफ करते हुए इसे सेंसर की विफलता बताया। इसरो के अनुसार,’समस्या की पहचान कर ली गई है। सेंसर फेल्योर की पहचान करने की विफलता और नुकसान से बचने के एक्शन से रॉकेट में डेविएशन यानी विचलन हुआ।’इसरो के चेयरपर्सन एस सोमनाथ में बाद में एक वीडियो संदेश में कहा कि रॉकेट ने पहले चरण में शानदार उड़ान भरी थी और इसके बाद दूसरे और तीसरे चरण में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया।’’ उन्होंने कहा, ‘’मिशन का प्रदर्शन बहुत अच्छा था और आखिर में ये जब ऑर्बिट में 356 किलोमीटर की ऊंचाई पर पहुंच गया तो सैटेलाइट्स अलग हो गए। हालांकि, बाद में हमने सैटेलाइट्स के ऑर्बिट में स्थापित होने में खराबी देखी थी।’

पृथ्वी के चारों ओर इंसानों के बनाए उपग्रह यानी सैटेलाइट्स मोटे तौर पर दो तरह की कक्षाओं में घूमते हैं। घरों पर लगे DTH के डिश एंटीना में धरती के ऊपर घूमने वाले सैटेलाइट्स से सिग्नल आते हैं, फिर भी हमें इन डिश एंटीना को घुमाना क्यों नहीं पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन सिग्नल भेजने वाले सैटेलाइट्स की स्पीड धरती की स्पीड के मैच कर रही होती है, इसलिए अंतरिक्ष में घूमने के बावजूद ये धरती के सापेक्ष स्थिर रहते हैं। ऐसे उपग्रह को जियो स्टेशनरी सैटेलाइट्स कहते हैं और उनकी कक्षाओं को भू-स्थैतिक ऑर्बिट कहते हैं। इन कक्षाओं में घूमने वाले सैटेलाइट्स पृथ्वी पर किसी एक बिंदु के सापेक्ष स्थिर रहते हैं। आमतौर पर ये कक्षाएं भूमध्य रेखा यानी धरती को दो बराबर हिस्सों में बांटने वाली काल्पनिक रेखा के ऊपर होती हैं। भू-स्थैतिक कक्षाओं में घूमने वाले सैटेलाइट्स का इस्तेमाल आमतौर पर टेली कम्यूनिकेशन में किया जाता है। जियो स्टेशनरी सैटेलाइट्स के पृथ्वी के चारों ओर घूमने का रास्ता इलिप्टिकल यानी अंडाकार होता है। कभी ये पृथ्वी के करीब आते हैं और कभी दूर चले जाते हैं। मई 1998 में भारत का दूसरा परमाणु परीक्षण तो आपको याद ही होगा। इन परीक्षणों को अमेरिका की नजरों से बचाने के लिए हमारे वैज्ञानिकों की टीम एक निश्चित समय काम करती थी और उसके बाद उस पूरे इलाके को एक तय में समय इस तरह से ढंक देते थे कि अमेरिका की जासूसी सैटेलाइट्स उसे पकड़ ना सकें। इस तरह हम कामयाबी से बिना दुनिया के पता चले परमाणु परीक्षण कर पाए। लेकिन क्या आपने सोचा? ये जासूसी सैटेलाइट्स एक तय समय पर ही भारत के पोखरण के ऊपर से क्यों गुजरते थे। दरअसल, जासूसी सैटेलाइट्स पृथ्वी के चारों ओर ऐसी कक्षाओं में घूमते हैं, जिनमें उनकी स्पीड धरती से मैच नहीं करती है। यानी वो धरती से किसी एक बिंदु के सापेक्ष स्थिर नहीं रहते हैं और तय समय पर किसी एक जगह के ऊपर से गुजरते हैं। ये सैटेलाइट्स सर्कुलर यानी वृत्ताकार कक्षाओं में घूमते हैं।
अब इसरो के SSLV के लॉन्च की बात करें तो SSLV को जो उपग्रह छोड़ने थे उन्हें धरती से 356 किलोमीटर ऊपर सर्कुलर या वृत्तीय ऑर्बिट में स्थापित करना था, लेकिन सेंसर फेल होने की वजह से रॉकेट ने उन्हें इलिप्टिकल यानी अंडाकार कक्षाओं में छोड़ दिया था।
इस मिशन की असफलता के बाद इसरो ने कहा है कि एक कमेटी इस मामले का आंकलन करेगी और अपनी सिफारिश सौंपेगी। इन सिफारिशों को लागू करने के बाद इसरो जल्द ही SSLV-D2 की लॉन्चिंग करेगा। 6 सितंबर 2019 को चंद्रयान-2 के जरिए इसरो ने चंद्रमा की सतह पर लैंडिंग का पहला प्रयास किया था। इस मिशन में अंत तक सब कुछ ठीक रहा, लेकिन लैंडिंग से महज 500 मीटर पहले लैंडर से संपर्क टूट गया। इसरो ने चंद्रमा के अपने दूसरे मिशन चंद्रयान-2 को 22 जुलाई 2019 को लॉन्च किया था। इस मिशन में एक लूनर ऑर्बिटर, विक्रम लैंडर, और प्रज्ञान लूनर रोवर शामिल था। 20 अगस्त को चंद्रयान-2 चंद्रमा की ऑर्बिट में पहुंचा। विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर को 6 सितंबर को चंद्रमा के साउथ पोल में लैंड करना था, लेकिन लैंडिंग से महज कुछ मिनट पहले लैंडर क्रैश हो गया। इसरो ने क्रैश की वजह एक सॉफ्टवेयर ग्लिच को बताया था। दरअसल, विक्रम लैंडर का चंद्रमा की सतह से करीब 500 मीटर पहले संपर्क टूट गया था और लैंडर क्रैश हो गया था। इसरो के तत्कालीन चीफ के सिवन ने जनवरी 2020 में रोवर विक्रम के चांद पर लैंडिंग में विफल रहने की वजह बताते हुए कहा था, ”लैंडर की वेलॉसिटी 15 मिनट के अंदर चार चरणों में 6 हजार किमी/घंटे से 0 किमी/घंटे होनी थी। लेकिन दूसरे चरण में वेलॉसिटी जितनी घटनी थी उतनी नहीं घट पाई, इसकी वजह से तीसरे चरण को हैंडल ही नहीं किया जा सका।” साथ ही चंद्रमा पर लैंडिंग से महज कुछ सौ मीटर पहले विक्रम लैंडर निर्धारित 55 डिग्री के बजाय 410 डिग्री तक झुक गया था। चूंकि विक्रम ऑटोनॉमस मोड में लैंड कर रहा था, ऐसे में वैज्ञानिक विक्रम को सीधा करने के लिए कुछ नहीं कर पाए। इसरो के सबसे विश्वनसीय लॉन्च व्हीकल में शामिल पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी PSLV भी अपनी पहली उड़ान में असफल रहा था। 20 सितंबर 1993 को इसरो ने PSLV-D1 की पहली लॉन्चिंग की थी। इसरो ने PSLV-D1 के जरिए IRS-1E नामक सैटेलाइट स्पेस में लॉन्च किया था। लेकिन ये मिशन असफल रहा था और PSLV IRS-1E सैटेलाइट को ऑर्बिट में नहीं पहुंचा पाया था।
PSLV-D1 की लॉन्चिंग में पहले और दूसरे चरण का प्रदर्शन उम्मीद के अनुसार रहा था, लेकिन ऊंचाई को नियंत्रित करने की समस्या की वजह से सैटेलाइट के रॉकेट से अलग होने के दूसरे और तीसरे स्टेज में समस्या आई। इस वजह से सैटेलाइट ऑर्बिट में पहुंचे में असफल रहा। अक्टूबर 1994 में पहली सफल लॉन्चिंग के बाद PSLV भारत का सबसे बेहतरीन लॉन्च व्हीकल बन गया। जून 2017 तक इसने लगातार 39 सफल मिशनों को अंजाम दिया। 01 जुलाई 2022 तक इसरो के PSLV के जरिए लॉन्च 55 मिशनों में 52 मिशन सफल रहे थे, यानी PSLV की सक्सेस रेट करीब 94% रही है। इसरो का पहला स्पेस मिशन ही असफल रहा था। इसरो ने 10 अगस्त 1979 को श्रीहरिकोटा से देश के पहले सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल यानी SLV-3 की पहली लॉन्चिंग की थी। SLV-3 के जरिए इसरो ने रोहिणी टेक्नोलॉजी पेलोड यानी RTP नामक सैटेलाइट लॉन्च किया था। रोहिणी 35 किलोग्राम का एक एक्सपेरिमेंटल स्टैबलाइज्ड सैटेलाइट था। रोहिणी टेक्नोलॉजी पेलोड सैटेलाइट में SLV-3 की उड़ान की निगरानी के लिए इंस्ट्रूमेंट्स लगे थे। हालांकि, SLV उस समय एक एक्सपेरिमेंटल रॉकेट ही था, इसलिए वह रोहिणी को निर्धारित ऑर्बिट तक नहीं पहुंचा पाया और इसरो का ये लॉन्चिंग मिशन असफल रहा। लेकिन कुछ मिशनों की असफलता के बावजूद 1969 में बना ISRO दुनिया के सबसे कामयाब स्पेस एजेंसियों में शुमार है। 7 अगस्त 2022 तक इसरो ने अपने 84 स्पेस मिशन लॉन्च किए थे, इनमें से 67 सफल, 5 आंशिक सफल रहे हैं। वहीं केवल 10 में उसे असफलता मिली है। अपने मिशनों के अलावा करीब 100 से अधिक विदेशी स्पेस मिशनों में भी इसरो शामिल रहा है।
अमेरिका के नासा, यूरोपियन स्पेस एजेंसी और रूस की रोसकोसमोस जैसे स्पेस ऑर्गेनाइजेशन भले ही आर्थिक रूप से ज्यादा मजबूत हों, लेकिन स्पेस मिशन की लॉन्चिंग की सफलता के मामले में इसरो से आगे नहीं हैं। इसरो की कामयाबी की सबसे खास बात ये है कि अब तक उसके किसी भी स्पेस मिशन में किसी की जान नहीं गई है। सोवियत रूस और नासा दोनों को स्पेस मिशन के दौरान इंसानों की जानें गंवानी पड़ी हैं। खास बात ये है कि इसरो की सफलता दर नासा जैसी प्रमुख स्पेस एजेंसी से भी बेहतर है। इसरो के पूर्व प्रमुख और स्पेस साइंटिस्ट माधवन नायर ने 2021 में एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर हम ग्लोबल लॉन्च हिस्ट्री को देखें, तो असफलता की दर 10% है। अब तक इसरो द्वारा किए गए 200 के करीब लॉन्च में हमारी असफलता दर केवल 5% है।

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